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नौकरी-पेशा महिलाऐ

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नौकरी पर भागती महिलाऐ,
उठ जाती हैं मेरे गावं में,
भोर होने से पहले, पौ फट्ने से पहले,
सूरज के उगने से पहले, मुरगे की बॉग से पहले,
निबटा कर झाडू‌-पॉछा, घर का चूल्हा-चौका
बर्तन-भाडे साफ करके,
दौडती हैं “रेस” के घोड़े की तरह,
जिन पर होते हैं करोड़ो के वारे-न्यारे,
हो जाते हैं सट्टे के सम्राट्।
बाजारीकरड की इस अर्थ-मंडी में,
ये नारियौ बन जाती हैं, परिवार की रीढ की हडडी।
जिनकी आय से व्यवस्थित रहती है
परिवार की स्थिरता एवम स्तरीयता।
ये महिलाऐ जब दिखती हैं बस अड्डे या ऑटो में,
हारी-थकी काली आँखों जब,
एक-दुसरी सहेली की आँखों के गढ्ढौ में झाँकते हुए,
पर्स से चना निकाल कर मुँह में डाल, चबाते हुए,
चुरा लेती हैं आँखें।
आँखों की थकान-नमी छुपा नही पाती सच को,
छुपाती हुई सच को,
बड़े ग्लास वाला काला चश्मा चढ़ा,
ब्रांडेड डिज़ाइन के कपडे पहन कर,
निकलती हैं मुस्कुराते-इठ्लाते हुए।
शायद ही इन्हें मिलता हो, घर का गर्म खाना’
रात की मीठी नींद शायद ही कभी सोती हॉ,
कब हँसी थीं खिलखिलाकर पति-बच्चौ के साथ,
मन भर कब बतिलायी थी किसी,
अॅंभतरंग मित्र या रिश्तेदार से,
कब रोई थीं अपनी सास-मॉ की गोद मे?
ये औरतें भूल जाती हैं सब कुछ,
यहॉ तक अपने आप को, नौकरी के लिये,
भागते-भागते हुए।
नौकरी-पेशा महिलाऐ, नौकरी पर जाती-जाती हुई,
एक मशीन बन जाती हैं, ये मिडिल क्लास अभागी औरतें।
दुधार बकरी बन जाती हैं माता-पिता के लिए
जिन्हें प्यार-ममता-नैतिकता की डोर के सहारे
बाँधा जाता है, लूटा जाता है,
प्यार-संस्कारों के खूँटे से बॉध कर,
आजन्म दुही-शोषित की जाती हैं स्नेह से,
जब तक कमाती हैं, कमाई बड़ी चालाकी से लूट ली जाती है,
इस तर्क-वितर्क के साथ,
भोली हो, सीधी हो,
कोई जिहादी लूट ले जायेगा,
कोइ ठग, बहका के ले जायगा।
औरत सचमुच लक्ष्मी हैं,
पर सचमुच अपने ही ठग लेते हैं,
और उल्लू वाहन पर बैठा कर,
ठगी जाती हैं अपनों से,
और रोज नौकरी पर भागते-भागते,
ना जाने कब, बूडी हो जाती हैं।
नौकरी करना एक स्टेटस सिम्बल है,
कमाना एक मजबूरी और अनिवार्यता है,
अब हर लड़की भेजी जाती है
शिक्षा की दुकान मै और बन जाती है,
कारखाने का कच्चा पर बिकाऊ माल,
अपने को शो पीस बनकर,
सीखने के लिए कमाने का हुनर,
मुद्रा और मंडी के इस युग में,
बढ़ रही है, कमाऊ औरतों की माँग।
नौकरी-पेशा महिलाऐ बन गई हैं,
एक चलता-फिरता-बोलता कल-कारखाना।
बहु-उत्पादक, बहु-राश्ट्रिया कम्पनियौ के समान,
एक बड़ी आर्थिक इकाई में बन चुकी,
इन पर टिका है मातृ-पितृ सत्ता का आन, बान और शान,
इस लिए देहरी कूद कर, चल पड़ी हैं
खो कर खुद को, भाग रही हैं दनादन,
नौकरी-पेशा महिलायै।

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