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कर्म मे योग का महत्व

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योग का हमारे जीवन मे अत्यधिक महत्व हे! योग के द्वारा मनुश्य अपने कर्मॉ को वश मे कर के प्रभु के बताये रास्ते पेर चल कर अपने भविश्य को सुंदर बना सकता है! ऐसा कोइ अंग नहि है जहॉ से योग एवम कर्म को नियंत्रित किया जा सके! यह एक मनोवैग्यनिक प्रश्न है!
सभी यह जांते है कि भागवान सब जगह उपस्थित है! इस कारढ़: मनुश्य को ऐसे स्थान का न्रान करना आवश्यक है जिससे कि मनुश्य अच्छे एवम बुरे कर्मो का न्रान समझ सके! यहाँ यह बात ध्यान देने योग्य है कि कर्म योग का मार्ग ध्यान योग से ही प्रारम्भ होता है! इस कारंड: से कर्म योग मे भगवान मे ध्यान का अत्यण्‌:त महत्व पुर्ण: स्थान है!
श्रीमद् भगगवद गीता के अध्याय छ; में इस कर्म योग पदृति की विशेष रूप से संस्तुति की गयी है! इसमे भगवान इस बात पर बल देते हैं कि कर्म योग कि प्रक्रिया भक्ति भाव अर्थात कृष्ण: भाव मे किया गया कर्म श्रेठ: कर्म होता है! इस संसार मे प्रत्येक मनुश्य अपने एवम अपने परिवार के पालन एवम देख्भाल के लिये, किसी निजी स्वार्थ पूर्ति के लिये अथवा निजी इंद्रिय अथवा काम पूर्ति हेतु कर्म कर्ता हे भले ही वह स्वार्थ पुर्ति के लिये हो या समाज के लाभ के लिये हो, परंतु कृष्ण: भाव मे रहकर किया गया हो तो वह श्रेश्ठ कर्म होता है! इसका यह भी तात्पर्य है कि कर्म बिना किसी फल की कामना के द्वारा होना चहिये!
कृष्ण: भाव मे रह कर कार्य करना प्रत्येक मनुश्य का धर्म एवम कर्तव्य होता है! यही श्रेश्ठ कर्म योग होता है! लोग कहते है कि भगवान का ज्ञान होने से कोइ लाभ नही होता है! परंतु यह अज्ञंता है अथवा घमंढ के लक्ष्ण: है! प्रथम मानव प्रभु का ही अंश है, अथह मानव, मानव ही रहेगा एवम प्रभु, प्रभु ही रहेंगे! अथह प्रभु के ध्यान योग मे किया गया कर्म ही श्रेश्ठ कर्म योग होगा! बिना ध्यान योग के श्रेश्ठ कर्म योग का भल ना ही बनेगा और ना ही प्राप्त हो सकेग!
कर्म मे यह ध्यान रखना होगा कि प्रभु अपने स्थान पर ही विराजमान रहेगे और मानव अपने स्थान पर ही विराजमान रहेगा! शस्त्रॉ मे यहा कहा गया है कि अगर प्रभु मे ध्यान योग मे रहा कर अगर कोइ कर्म किया जाता है तो ऐसा मनुष्य उच्च एवम श्रेश्ठ कर्मो को करते हुये उच्च योनि मे जन्म लेता है या जन्म और मृत्यु के चक्र से मुक्त होकर मुक्ति को प्राप्त होता है!
अत: ध्यान योग मे कार्य करने से श्रेश्ठ कर्म योग बनता है! जिस प्रकार शरीर के अंग अपनी अपनी तुष्टि:के लिये कार्य नहि करअते है अपितु पुरे शरीर की तुष्टि: के लिये कार्य कर्ते है! इसी तरह इंसान को भी निजी स्वार्थ पुर्ति के लिये कार्य ना करके, पुर्ण परमातमा पुरुशोत्तम एवम समस्त ष्र्ष्ठी; के लिये कार्य एवम कर्म करना ही ष्रेष्ठ कर होता है! इस तरह से कर्म योग करने वला व्यक्ति ही पुर्ण रूप से सिध: योगी बन जाता है तथा उसको ष्रेष्ठ मानव माना जाता है!
कर्मो मे पाप और पुन्य का योग सदैव चलता रहता है! इसी तरह सुख और दुख का भी योग सदैव चलता रहता है! परंतु जो कर्म योग ध्यान योग के साथ किया जाता है वह मनुष्य सुख एवम दुख के कुचक्र से भी मुक्त रहता! अगर कर्म योग को ध्यान योग को भूल कर किया जाता है वो व्यक्ति कभी भी सुखी नही रह सकता है1
श्रीमद भागवद गीता के छठे: अध्ध्याय मे, जो कि प्रसिध: सांख्य योग को वर्णैत करता है, प्रथम श्लोक मे भगवान श्री कृष्णा कहते है ;
अनाश्रित: कर्मफलं कार्य कर्म करोति य: !
स सन्यासी च योगी च न निरग्निंन्र चाक्रिय: !!
“ जो पुरुष अपने कर्मफल के प्रति अनासक्त है और जो अपने कर्तवय का पालन करता है वही सन्यासी और योगी है; वह नही, जो नतो अग्नि जलाता है और न कोइ कर्म करता है !”
यदि कोइ व्यक्ति योग के नियमक सिधातों के अनुसार कर्म करता है, तो वह अनेक प्रकार की सिध्धियॉ प्राप्त करता है! हालांकि इस तरह के शक्तिशाली कर्म योगि अत्यंत दुर्लभ होते है, किंतु वे मानव समाज मे विध्मान रहते हैं! भक्तियोगी और ध्यानयोगी नि:स्वार्थ भाव से पुर्ण: समाज की तुश्टि के लिये कर्म करता है तथा आत्म तुष्टि की कामना नही करता है तथा उसकी सफलता की कसौटी ध्यान योग के द्वारा प्रभु की तुष्टि होती है वह कर्म कर्म योग के अनुसार ष्रेष्ठ कर्म होता है !
यदि कोइ व्यक्ति यह सोचता है कि वह अपने कार्य स्वंम करने मे सक्शम है तो यह उसकी अग्यांता एवम अहंकार है! अगर किसी इंसान की एक उंगली उसके शरीर से काट कर अलग कर दी जाती है तो वह बेकार हो जाती है ! ठीक इसी तरह अगर कोइ इंसान ध्यान योग को भूल कर, अकेले ही कर्म योग में भाग लेता है तो सदैव ही असफल रहेगा !
कर्म का अर्थ क्रियाशीलता से होता है ! खाली बैठ कर भगवान का सिर्फ ध्यान करना क्रियाशीलता या कर्मशीलता नही होती है ! हमारे पास जो भी उर्जा और संसाधन है उन्हें प्रभु का ध्यान करते हुऐ, कर्म मैं भाग लेना ही उचित कर्म योग होता है !
योग और कर्म एक दुसरे से जुढे हुये हैं । योग एवम कर्म के माध्यम से ही सर्वोपरी से जुढ्कर परम आनंद की प्राप्ति होती है तथा उस व्यक्ती को सम्पुर्ण तुष्टि की प्राप्ती होतीहै। योग पद्वति की तुलना सीढी से की जा सकती है । अपने कर्म के द्वारा जब इंसान सबसे ऊपर के सोपन पर पहुंच जाता है तो उसे परम आनंद की प्राप्ति होती है । इस प्रक्रिया मे सीडी योग का कार्य करता है और सीढीं पर चढ्ना कर्म का कार्य करता है ।

श्रीमद भाग्मद गीता मे श्रेश्ठ धनुर्धर अर्जुन युद्ध अर्थात कर्म करने से विचलित होता है दो प्रभु गीता ज्ञान से अर्जुन को कर्म अर्थात युद्ध के लिये प्रेरित करते हैं। यही सही कर्म की सही प्रेरणा है । हमें उन कर्मॉ से दूर रहना चाहिये जो हमारी चेतना, ज्ञान एवम ध्यान योग में बाधक हैं । योग का सही ज्ञान एवम पालन, समस्त व्यर्थ के कार्यॉं से हमरा ध्यानदूर रखताहै । ऐसा ज्ञान इंसान को कर्म और योग के मिश्रण से परम आनंद की प्राप्ति करता है । आनंद कभी गलत ढंग से नहीं प्राप्त किया जा सकता है । आनंद सागर के समान होताहै । जितना इंसान क्रियाशील होकर सागर के समान अपना कर्म और योग मे मंथन करेगा उतना उतना ही परम आनंद की प्राप्ति होगी ।

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