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गफलत मे खुदा

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दरवाजे मस्जिद पर बैठा बेख़ुद गालिब,
लगा रहा था मस्ती की शराब के जाम।
हैरान, परेशान भागा, खुदा चीखा,
मेरा आशियाना हे ये मस्जिद गालिब,
तेरा मैख़ाना नहीं।
मस्त, बेखौफ, बेखर गालिब बोला,
“या तो मस्जिद मे बैठकर पीने दे शराब,
या वो जगह बता जहाँ खुदा न हो।”
देखकर, हैरान, परेशान, खुदा को,
दौड़ा, भागा आया, इकबाल,
“मस्जिद खुदा का घर हे काफिर,
काफिर के घर मे जाकर पी शराब,
जहाँ खुदा रहता नहीं।“
गालिब, खुदा और इकबाल को देखा झगड़ते,
भागा फराज़ झगड़ा सुलझाने,
“काफिर के दिल मे आया हु, मे ये देखकर;
खुदा मौजूद हे वहाँ, किसी को पता नहीं।”
झगड़ा सुलझता ना देख, बोले बादशाहा बच्चन;
“मंदिर-मस्जिद बैर कराते,
प्रेम करती मधुशाला।

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